उपराष्ट्रपति का बड़ा हमला: सुप्रीम कोर्ट न बने ‘सुपर संसद’, राष्ट्रपति को आदेश देना असंवैधानिक,
अनुच्छेद 142 को बताया लोकतंत्र के खिलाफ परमाणु मिसाइल, कैश वाले जज पर चुप्पी पर उठाए सवाल, न्यायपालिका की भूमिका पर गंभीर चिंता जताई. उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं, क्योंकि राष्ट्रपति भारत की सेना के सर्वोच्च कमांडर हैं और संविधान की रक्षा, संरक्षण और सुरक्षा की शपथ लेते हैं। धनखड़ ने न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि जज कानून बनाने, कार्यपालिका की भूमिका निभाने और संसद से ऊपर होने का अधिकार नहीं रखते। उन्होंने अनुच्छेद 142 को 'लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल' बताया, जो न्यायपालिका के लिए 24x7 उपलब्ध है ।
देश की न्यायपालिका अब अपनी सीमाओं को लांघ रही है — यह केवल चिंता का विषय नहीं, लोकतंत्र के लिए सीधा खतरा है! उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ आज आगबबूला हो उठे, जब उन्होंने देखा कि कैसे न्यायपालिका कार्यपालिका पर लगातार नियंत्रण जमाने की कोशिश कर रही है। ये वही कार्यपालिका है जिसे जनता चुनती है — और वही न्यायपालिका, जिसे कोई नहीं चुनता, आज लोकतंत्र को आँखें दिखा रही है!
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी पर कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया था। धनखड़ ने इसे संविधान के अनुच्छेद 145(3) के उल्लंघन के रूप में देखा, जो सुप्रीम कोर्ट को केवल संविधान की व्याख्या करने का अधिकार देता है, वह भी कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा ।
उपराष्ट्रपति ने तीखे शब्दों में न्यायपालिका को संविधान की लक्ष्मणरेखा याद दिलाई:
1. "आप राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकते!" – राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है, कोई अदालत का क्लर्क नहीं।2. "अनुच्छेद 145(3) कहता है – संवैधानिक व्याख्या के लिए कम-से-कम 5 जज!" – फिर यह तीन जजों की फौज संविधान पर भाषण क्यों दे रही है?
3. "राष्ट्रपति को परमादेश देना सीधे-सीधे संविधान का अपमान है!" – क्या अब जज राष्ट्रपति से ऊपर हो गए?
4. "अनुच्छेद 142 अब 24×7 परमाणु मिसाइल बन गया है!" – हर चीज़ में 142 लगाओ और फैसला सुना दो, यही नया खेल है क्या?
जस्टिस वर्मा मामले पर उपराष्ट्रपति ने खुलकर बोला – तीन जजों की एक कमेटी बना दी गई है जांच के लिए। लेकिन साहब, जांच करना न्यायपालिका का काम नहीं है, यह सीधा कार्यपालिका का क्षेत्र है! उन्होंने तीखे लहजे में पूछा:
क्या यह समिति संविधान के अधीन है? नहीं!
क्या इसे संसद की मंजूरी मिली? नहीं!
तो यह अधिकार कहाँ से आया? — "कानून की दुकान में खुद ही ग्राहक, खुद ही दुकानदार?"
उपराष्ट्रपति ने यह भी कहा कि एक महीना बीत चुका है और जांच में कोई गंभीरता नहीं। सबूत मिट सकते हैं, प्रक्रिया भ्रष्ट हो सकती है — लेकिन न्यायपालिका का वर्ग अपनी बनाई हुई परछाई में मग्न है।
"क्या हम कानून के शासन को कमजोर नहीं कर रहे हैं?"
"क्या हम उन लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं, जिन्होंने संविधान हमें सौंपा?"
उपराष्ट्रपति का ये बयान सीधा संकेत है कि अब समय आ गया है — संविधान के नाम पर चल रही न्यायिक तानाशाही को रोका जाए!
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